Tuesday, May 11, 2010

खड़ी हूँ उस ही दौराहे पे,



खड़ी हूँ उस ही दौराहे पे,
जहाँ मिलने का वादा किया था तुमने,
न रौशनी कोई
न साया कोई
दूर भटक गयी हूँ ज़माने से
...............................
काँटों भरी राह नहीं,
पर कदम अब साथ देते नहीं,
कब तक अकेले कटेगा सफ़र
निकली थी जहां ढूँढने हमसफ़र
...................................
उम्मीद दिखी , एक किरण दिखी ,
बढ़ी मैं आगे सम्भल सम्भल
क्या पता था है ये भ्रम,
जब देखा एक जुगनू ने तोड़ा स्वप्न .
.....................................
अब नहीं हँसना मुझे,
आसुओं ने भी छोडा संग
कठोरता की मूरत नहीं,
पर बनाया तुमने पत्थर मुझे.
..............................
और आगे अब बढ़ना नहीं मुझे,
खड़ी हूँ उस ही दौराहे पे,
जहां मिलने का वादा किया था तुमने,
लेकिन दूर भटक गयी हूँ ज़माने से..
...............................................................................................................

8 comments:

  1. heart touching lines yar, i lost within..so so gud..
    second last para was too gud, i like it so muuuuch...

    really nice :)

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  2. thank u henish...
    altho i had written this quite sumtym back..

    abhi to kuchh samajh hi nhi aa rha.!!
    have nthing to inspire.. so nthing to write!

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  3. hey, very touching.. itni udaas poem na hoti to "i loved it" zaroor kehta

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  4. well. kabhi kabhi udaasi bhi sachhi hoti hai..

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  5. "खड़ी हूँ उस ही दौराहे पे,
    जहां मिलने का वादा किया था तुमने,"

    बहुत उम्दा !

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